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ट्रंप के ‘अवैध’ टैरिफ पर भारत के पक्ष में आवाज़: अमेरिकी सांसदों ने आपातकालीन शुल्क खत्म करने की पहल तेज की

ट्रंप के ‘अवैध’ टैरिफ पर भारत के पक्ष में आवाज़: अमेरिकी सांसदों ने आपातकालीन शुल्क खत्म करने की पहल तेज की

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार संबंध दशकों पुराने हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी पुराने बरगद की जड़ें—गहरी, मजबूत और समय की मार झेल चुकी। लेकिन जब डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते हुए भारत पर आपातकालीन शक्तियों का हवाला देकर भारी टैरिफ लगाए, तो इस रिश्ते में खटास आ गई। अब उसी अमेरिका के भीतर से आवाज़ उठ रही है कि ये टैरिफ न सिर्फ अनुचित थे, बल्कि कानूनी रूप से भी सवालों के घेरे में हैं।

डोनाल्ड ट्रंप की व्यापार नीति हमेशा से सीधी-सादी नहीं रही। उनका अंदाज़ था—सीना ठोककर, “अमेरिका फर्स्ट” का नारा, और सामने वाले को झटका। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। स्टील, एल्युमिनियम और कुछ अन्य उत्पादों पर लगाए गए शुल्कों को राष्ट्रीय सुरक्षा और आपात स्थिति का नाम दिया गया। पर असलियत में कई अमेरिकी सांसद अब कह रहे हैं कि यह आपातकाल था ही नहीं—बस सत्ता का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल था।

अमेरिकी कांग्रेस में दोनों दलों के कुछ सांसदों ने मिलकर इन आपातकालीन टैरिफ को खत्म करने की पहल शुरू की है। उनका साफ कहना है कि किसी भी राष्ट्रपति को बिना ठोस कारण के आपात शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। यह न सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों का भी उल्लंघन है।

भारत के लिए यह मुद्दा सिर्फ पैसों का नहीं, सम्मान का भी है। एक ऐसा देश जो वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अहम भूमिका निभाता है, उसे “आपात खतरा” बताकर निशाना बनाना कई लोगों को हज़म नहीं हुआ। भारतीय निर्यातकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा, छोटे उद्योग दबाव में आए और व्यापारिक अनिश्चितता बढ़ी।

अमेरिका के भीतर उद्योग जगत ने भी ट्रंप के टैरिफ का विरोध किया। कई कंपनियों ने कहा कि इन शुल्कों से अमेरिकी उपभोक्ताओं को महंगाई झेलनी पड़ी और घरेलू उद्योग को फायदा कम, नुकसान ज़्यादा हुआ। अब वही तर्क सांसदों की ज़ुबान पर है—अगर नीति से अपने ही लोग परेशान हों, तो उसे देशहित कैसे कहा जाए?

कांग्रेस में पेश किए जा रहे प्रस्तावों का मकसद साफ है: राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों पर लगाम लगाना और उन टैरिफ को खत्म करना जो बिना वास्तविक संकट के लगाए गए। सांसदों का मानना है कि व्यापार नीति का फैसला संवाद और कानून के तहत होना चाहिए, न कि अचानक लिए गए राजनीतिक फैसलों से।

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भारत-अमेरिका रिश्तों के लिहाज़ से यह मोड़ अहम है। अगर ये टैरिफ हटते हैं, तो दोनों देशों के बीच व्यापारिक भरोसा फिर से मज़बूत हो सकता है। तकनीक, रक्षा, ऊर्जा और मैन्युफैक्चरिंग जैसे क्षेत्रों में सहयोग को नई रफ्तार मिल सकती है। भारत के लिए यह राहत की सांस होगी, और अमेरिका के लिए यह संकेत कि वह नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था में भरोसा रखता है।

सच कहें तो यह पूरा मामला सिर्फ ट्रंप बनाम सांसदों का नहीं है। यह सवाल है कि दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक ताकतें व्यापार को डर और दबाव से चलाएंगी या साझेदारी और नियमों से। पुराने ज़माने की कहावत है—ज़ोर से नहीं, ज़ोरदार सोच से जीत होती है। अब अमेरिका उसी सोच की तरफ लौटता दिख रहा है।

अगर अमेरिकी सांसद अपने मकसद में कामयाब होते हैं, तो यह फैसला सिर्फ भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बनेगा। यह बताएगा कि लोकतंत्र में ताकत का इस्तेमाल जवाबदेही के साथ होना चाहिए। और हां, सीधे शब्दों में कहें तो—बिना वजह लगाए गए टैरिफ का खेल अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला।

यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। लेकिन हवा का रुख बदल चुका है। जो दीवारें टैरिफ से खड़ी की गई थीं, उन पर दरारें साफ दिख रही हैं। आने वाले समय में यह देखा जाएगा कि क्या अमेरिका सच में उन आपातकालीन शुल्कों को इतिहास की धूल में दफना देता है, या फिर यह विवाद लंबा खिंचता है। एक बात तय है—भारत अब खामोश रहने वाला नहीं, और अमेरिका के भीतर भी सच्चाई बोलने वाली आवाज़ें तेज़ हो चुकी हैं।


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