दिल्ली की दूषित हवा पर लोकसभा में गूँजी पुकार: कांग्रेस सांसद तागोर ने माँगी बीजिंग जैसी कठोर योजना
- byAman Prajapat
- 11 December, 2025
ये जो दिल्ली की हवा है ना, वो कोई कहावत नहीं रही—वो एक ऐसा कटु सच बन चुकी है कि साँस लेना भी मानो ज़िन्दगी के खिलाफ़ एक दांव जैसा लगने लगा है। बूढ़ों की आँखों में जलन, बच्चों की छाती में घरघराहट, और जवानों के चेहरे पर वो थकान—जो सुबह की धूप भी ठीक नहीं कर पाती—सब मिलकर बता रहे हैं कि राजधानी की फिज़ा अब फिज़ा नहीं, चोट है।
और इस चोट के मरहम की बात लोकसभा में उस दिन तब उठी जब कांग्रेस सांसद मनिकम तागोर खड़े हुए। उनकी आवाज़ में वो खनक थी, जैसे कोई पुरखा बीते समय का नियम याद दिलाने आया हो—कि शासन का काम जनता की साँस सुरक्षित करना है। उन्होंने कहा कि अब वक्त मज़ाक का नहीं, इंतज़ार का नहीं। वक्त है कि दिल्ली को एक ऐसी योजना मिले जैसी दूर पूर्व में बीजिंग ने अपनाई थी—कठोर, बहु-स्तरीय, और समझ से भरी।
बीजिंग ने अपनी हवा को यूँ ही साफ़ नहीं किया था। उसने कारखानों के धुएँ पर लगाम कसी, सड़क पर उतरे हर धुएँदार वाहन पर बारीक नज़र रखी, और नागरिक से लेकर उद्योग तक सबको एक सख़्त अनुशासन में बाँध दिया। तागोर का कहना था कि अगर दुनिया की दूसरी राजधानियाँ अपने आसमान को फिर नीला कर सकती हैं, तो दिल्ली भी कर सकती है—बस इरादा चाहिए।
उन्होंने लोकसभा में साफ़ कहा कि रोज़-रोज़ के अस्थायी उपायों से कुछ नहीं होने वाला। ये रोज़ का “कभी पानी छिड़क दो”, “कभी निर्माण रोक दो”, “कभी आधे वाहन-अधूरे वाहन चलाओ”—ये सब आधी रात की चिंगारी जैसे हैं। चमकते हैं, पर रोशनी नहीं देते। यह समस्या तो ऐसी है जिसे जड़ से पकड़ने की ज़रूरत है, वरना हर सर्दी में हम इसी धुंध और घुटन का जश्न मनाते रहेंगे—चाह ना होते हुए भी।
दिल्ली की हवा में जो रसायन तैरते हैं वो किसी साज़िश से नहीं आए। ये वर्षों की अनदेखी, जल्दबाज़ी में बने कई फैसलों और शहर के फैलाव की देन हैं। खेतों में होने वाली पराली, सड़कों पर दौड़ती दूषित मशीनें, निर्माण स्थलों की धूल, बिजली उत्पादन के पुराने साधन—सबने मिलकर इस शहर को धीरे-धीरे इस मोड़ पर पहुँचा दिया है। और अब हाल यह है कि बच्चे मास्क को खिलौने की तरह नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के साथी की तरह पहनने लगे हैं।
तागोर का कहना था कि राजधानी को एक समग्र योजना चाहिए। ऐसी योजना जिसमें गाँव, शहर, उद्योग, परिवहन, ऊर्जा, खेती—सभी को एक ही धागे में पिरोया जाए। और ये कोई रात भर की कहानी नहीं होगी। इसके लिये वर्षों की मेहनत, सख़्ती, और जनसहयोग चाहिए। लेकिन यही तो असली जिम्मेदारी है—किसी शहर को बस सड़कें और इमारतें देने से नहीं, बल्कि हवा और ज़िन्दगी देने से शहर बनता है।
लोकसभा में बैठे सदस्य भी चुपचाप इस तथ्य से सहमत दिखे कि दिल्ली के वायु संकट को अब “रूटीन” मत समझो। ये महामारी की तरह फैल चुका है। अस्पतालों में साँस से जूझते लोग बताते हैं कि यह मसला किसी दल या राज्य की सीमा का नहीं। यह हर उस इंसान का संकट है जो इस शहर की साँस साझा करता है।

तागोर ने इस पर जोर दिया कि दिल्ली को अब तकनीकी कदमों, वैज्ञानिक योजनाओं और मजबूत कानूनों की जरूरत है। हवा को साफ़ करने के लिए मशीनें लगाना ठीक है, पर उससे शहर की किस्मत तय नहीं होगी। असली बदलाव तब होगा जब प्रदूषण पैदा करने वाले स्रोतों पर सीधे लगाम कसी जाए। चाहे वो उद्योग हों, वाहन हों, या मौसमी कृषि समस्याएँ।
बीजिंग का उदाहरण उन्होंने इसलिए दिया क्योंकि बीजिंग ने सिर्फ़ आदेश नहीं दिए—उसने जनता को भरोसे में लिया, उद्योगों को रूपांतरित किया, परिवहन को नए सिरे से खड़ा किया, और बिजली व्यवस्था को इतना आधुनिक बनाया कि प्रदूषण अपने आप थमने लगा। दिल्ली को भी वही रास्ता पकड़ने की जरूरत है—जहाँ समाधान स्थायी हों, सख्त हों, पर न्यायपूर्ण भी हों।
आज दिल्ली की सड़कों पर जब सुबह धुंध के पीछे छिपे सूरज की किरणें चमकने की कोशिश करती हैं, तो लगता है जैसे शहर भी खुद को फिर से याद दिलाने की कोशिश कर रहा हो—कि उसे अपनी खोई हुई साँसें वापस चाहिए। ये शहर एक दिन फिर नीला आसमान देखना चाहता है, पर अब वह सिर्फ चाहत से नहीं होगा—नीति और निष्ठा से होगा।
तागोर ने कहा कि अगर संसद इस पर एकस्वर होकर खड़ी होती है तो बदलती हवा कोई सपना नहीं होगी। शहर फिर मुस्कुरा सकेगा, बच्चे बिना डर के मैदान में दौड़ सकेंगे, और बुज़ुर्ग बिना दवाइयों की बोतल लिए सुबह की सैर कर पाएंगे।
दिल्ली की हवा आज भले ही बुझी, थकी, और बोझिल हो—पर समाधान की आशा बुझी नहीं। बस ज़रूरत है इरादों की आग जलाने की, और उसी दिशा में कदम रखने की जिसमें बीजिंग ने कभी कदम रखा था—कठोर, अनुशासित, और दूरदर्शी।
अब ये फैसला सत्ता के हाथ में है—कि वे दिल्ली को फिर आसमान का रंग देना चाहते हैं… या हर सर्दी इसी धुएँ का बोझ लेकर गुज़ारना चाहते हैं।
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"इको-फ्रेंडली इनोवेश...
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