नेशनल हेराल्ड मामला: ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ ईडी की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने गांधी परिवार को नोटिस जारी किया
- byAman Prajapat
- 22 December, 2025
दिल्ली की अदालतों के गलियारों में एक बार फिर इतिहास की परछाइयाँ चलने लगी हैं। पुराने अख़बार की स्याही, सत्ता की धूल और कानून की ठंडी रोशनी—सब कुछ एक साथ। नेशनल हेराल्ड मामला, जो बरसों से भारतीय राजनीति के माथे पर शिकन बनकर बैठा है, अब दिल्ली हाईकोर्ट के दरवाज़े पर नए मोड़ पर खड़ा है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की याचिका पर हाईकोर्ट ने गांधी परिवार को नोटिस जारी कर जानकारी मांगी है। बात सीधी है, मगर असर दूर तक जाएगा।
मामला क्या है—संक्षेप में, बिना शोर के
नेशनल हेराल्ड अख़बार, जिसकी नींव आज़ादी के दौर में पड़ी, उससे जुड़ी कंपनी और लेन-देन को लेकर ईडी जांच कर रही है। आरोप मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े बताए जाते हैं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस का कहना है कि यह पूरा प्रकरण राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित है। सच और सियासत के बीच की यही रस्साकशी अब हाईकोर्ट में और कस गई है।
ट्रायल कोर्ट का आदेश और ईडी की आपत्ति
ट्रायल कोर्ट के एक आदेश को लेकर ईडी ने हाईकोर्ट का रुख किया। एजेंसी का तर्क है कि निचली अदालत के फैसले में कुछ ऐसे बिंदु हैं जिन पर पुनर्विचार ज़रूरी है। इसी संदर्भ में हाईकोर्ट ने गांधी परिवार से जवाब मांगा है—यानी अब दोनों पक्षों की दलीलें ऊपरी अदालत में खुलकर सामने आएंगी।
दिल्ली हाईकोर्ट का नोटिस—क्यों है अहम?
हाईकोर्ट का नोटिस कोई सज़ा नहीं, कोई फ़ैसला नहीं—यह न्याय की प्रक्रिया का पहला कदम है। अदालत जानना चाहती है कि जिनके ख़िलाफ़ या जिनसे जुड़ा मामला है, वे क्या कहते हैं। कानून का यही तरीका है: पहले सुनो, फिर तौलो, और तब बोलो। लेकिन राजनीति में हर नोटिस एक बयान बन जाता है, हर तारीख़ एक हेडलाइन।
गांधी परिवार की प्रतिक्रिया—राजनीति का पुराना राग
गांधी परिवार और कांग्रेस पहले भी कह चुके हैं कि वे अदालतों पर पूरा भरोसा रखते हैं। उनका दावा है कि जांच एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष को दबाने के लिए किया जा रहा है। यह बयान नया नहीं, लेकिन संदर्भ हर बार बदल जाता है। इस बार मंच दिल्ली हाईकोर्ट है, और दांव प्रतिष्ठा का।
ईडी का पक्ष—कानून की किताब, बिना भावुकता
ईडी का कहना है कि वह सिर्फ़ कानून के मुताबिक़ काम कर रही है। दस्तावेज़, लेन-देन, कंपनी संरचना—सब कुछ जांच के दायरे में है। एजेंसी के मुताबिक़ मामला गंभीर है और इसमें कानूनी प्रश्नों का स्पष्ट समाधान ज़रूरी है। ईडी के लिए यह केस मिसाल भी है और परीक्षा भी।
राजनीति की गर्मी—अदालतों से बाहर भी बहस
जैसे ही नोटिस की ख़बर आई, सियासी गलियारों में बयानबाज़ी तेज़ हो गई। समर्थक इसे “न्यायिक प्रक्रिया” कहते हैं, विरोधी इसे “राजनीतिक दबाव”। टीवी स्टूडियो से लेकर सोशल मीडिया तक, हर कोई जज बन बैठा है। लेकिन असली जज तो वही हैं जो काली कोट में, क़ानून की किताब के साथ बैठते हैं।

कानूनी प्रक्रिया आगे कैसे बढ़ेगी?
अब गांधी परिवार को नोटिस का जवाब देना होगा। इसके बाद ईडी अपनी दलीलें रखेगी। हाईकोर्ट दोनों पक्षों को सुनकर तय करेगा कि ट्रायल कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप ज़रूरी है या नहीं। यह सफ़र लंबा हो सकता है—तारीख़ें, बहसें, अंतरिम आदेश—सब कुछ।
नेशनल हेराल्ड—सिर्फ़ अख़बार नहीं, प्रतीक
यह मामला सिर्फ़ काग़ज़ों और कंपनियों का नहीं है। नेशनल हेराल्ड एक विचार था, आज़ादी की आवाज़ था। इसलिए जब उसका नाम अदालतों में आता है, तो भावनाएँ भी साथ चलती हैं। यही वजह है कि यह केस तकनीकी होने के बावजूद जनता के दिल तक पहुंच जाता है।
न्याय और समय—धीमी चाल, पक्का निशाना
भारतीय न्याय व्यवस्था तेज़ नहीं, मगर गहरी है। यहाँ फ़ैसले समय लेते हैं, लेकिन असर छोड़ते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट का यह नोटिस उसी लंबी प्रक्रिया का एक पड़ाव है। आज नोटिस है, कल सुनवाई, और परसों शायद कोई दिशा।
आगे क्या?
आने वाले दिनों में इस केस पर सुनवाई की तारीख़ें तय होंगी। जवाब और प्रतिजवाब दाख़िल होंगे। मीडिया की निगाहें जमी रहेंगी, और राजनीति की धड़कनें तेज़ होंगी। लेकिन अंत में फैसला कानून करेगा—न कि शोर।
आख़िरी बात—सीधे शब्दों में
यह लड़ाई अदालत में है, सड़क पर नहीं। बयान आएंगे, आरोप लगेंगे, लेकिन सच्चाई फ़ाइलों के बीच, दलीलों के भीतर छिपी है। दिल्ली हाईकोर्ट का नोटिस उसी सच्चाई तक पहुंचने की कोशिश है। बाकी सब शोर है—और शोर का काम बस इतना ही होता है।
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जीणमाता मंदिर के पट...
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