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धुरंधर फिल्म पर पाकिस्तानी नेता भड़के, बोले– “यह हमारी सच्चाई नहीं, इनका एजेंट लयारी से ज़िंदा नहीं जाता”

धुरंधर फिल्म पर पाकिस्तानी नेता भड़के, बोले– “यह हमारी सच्चाई नहीं, इनका एजेंट लयारी से ज़िंदा नहीं जाता”

सिनेमा जब इतिहास, राजनीति और जमीनी हकीकत से टकराता है, तो चिंगारियां उड़ना तय होता है। धुरंधर—जिसे मेकर्स ने एक रॉ, रियल और बेधड़क कहानी बताकर पेश किया—अब विवादों के घेरे में है। वजह? पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के एक राजनेता की नाराज़गी, जो फिल्म में अपने जैसे दिखते किरदार के चित्रण से खासे खफा हैं।

उनका कहना साफ़ है—“यह फिल्म न तो हमारी सच्चाई दिखाती है, न हमारे इलाके की रूह समझती है। जो एजेंट फिल्म में दिखाया गया है, वह अगर सच में लयारी आता, तो ज़िंदा वापस नहीं जाता।” बयान में तल्ख़ी है, गुस्सा है, और एक पुरानी शिकायत भी—कि बाहरी नज़र से देखी गई कहानियां अक्सर ज़मीनी सच को कुचल देती हैं।

विवाद की जड़ क्या है?

फिल्म धुरंधर में कुछ ऐसे किरदार और घटनाएं दिखाई गई हैं, जिन्हें लेकर दावा किया जा रहा है कि वे वास्तविक राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से प्रेरित हैं। हालांकि फिल्म के निर्माताओं ने शुरुआत से ही यह कहा कि कहानी काल्पनिक है, लेकिन सिनेमा की दुनिया में “डिस्क्लेमर” अक्सर आग बुझाने के बजाय उसे और भड़काने का काम करता है।

पाकिस्तानी नेता का आरोप है कि फिल्म में लयारी जैसे इलाके को एक स्टीरियोटाइप के तौर पर दिखाया गया—हिंसा, अपराध और अराजकता के प्रतीक की तरह। उनका कहना है कि यह न सिर्फ़ गलत है, बल्कि उन लाखों लोगों का अपमान भी है जो वहां एक सामान्य, मेहनती ज़िंदगी जीते हैं।

“रील बनाम रियल” की पुरानी लड़ाई

यह पहली बार नहीं है जब किसी फिल्म पर “हकीकत को तोड़-मरोड़ कर दिखाने” का आरोप लगा हो। सिनेमा हमेशा से कहानी कहने की आज़ादी मांगता रहा है, और समाज हमेशा जवाबदेही। यही टकराव इस विवाद के केंद्र में है।

नेता ने यह भी कहा कि फिल्म में दिखाया गया एजेंट और उसका नेटवर्क पूरी तरह अवास्तविक है। “लयारी कोई फिल्म का सेट नहीं है। यहां की अपनी तहज़ीब है, अपने उसूल हैं। बाहर से आकर कोई भी खेल नहीं खेल सकता,” उन्होंने कहा।

सोशल मीडिया पर बंटा हुआ जनमत

जैसे ही यह बयान सामने आया, सोशल मीडिया दो धड़ों में बंट गया।
एक तरफ़ वे लोग हैं जो कह रहे हैं—“फिल्म है, डॉक्यूमेंट्री नहीं।”
दूसरी तरफ़ वे आवाज़ें हैं जो मानती हैं कि जब आप किसी संवेदनशील इलाके और राजनीति को छूते हैं, तो ज़िम्मेदारी भी उतनी ही भारी होती है।

कुछ यूज़र्स ने सवाल उठाया कि क्या भारतीय सिनेमा को पड़ोसी देशों को दिखाते वक्त ज़्यादा रिसर्च और संवेदनशीलता नहीं दिखानी चाहिए? वहीं, समर्थकों का कहना है कि कला पर सीमाएं लगाना उसकी आत्मा को मारने जैसा है।

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मेकर्स की चुप्पी और रणनीति

अब तक फिल्म के निर्माताओं की ओर से कोई सीधा, तीखा जवाब नहीं आया है। इंडस्ट्री के जानकार मानते हैं कि यह एक सोची-समझी चुप्पी हो सकती है—क्योंकि विवाद अक्सर फिल्म को मुफ्त की पब्लिसिटी दे देता है। पुरानी कहावत है: “बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ।”

हालांकि, यह भी सच है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह की प्रतिक्रियाएं फिल्म की रिलीज़, स्क्रीनिंग और भविष्य के बाज़ार पर असर डाल सकती हैं।

सिनेमा, सियासत और सच्चाई

इस पूरे प्रकरण ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है—क्या सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन है, या सामाजिक ज़िम्मेदारी भी?
पुरानी परंपरा कहती है कि कहानी वही टिकती है जिसमें सच्चाई की खुशबू हो। जनरेशन चाहे कोई भी हो, झूठ को देर तक पचा नहीं पाती।

धुरंधर का यह विवाद शायद कुछ दिनों में शांत हो जाए, लेकिन जो बहस छेड़ गया है, वह लंबी है। यह बहस है प्रतिनिधित्व की, रिस्पॉन्सिबिलिटी की, और उस पतली रेखा की जो रचनात्मक आज़ादी और वास्तविक लोगों की पहचान के बीच खिंची होती है।

आगे क्या?

फिलहाल, सबकी निगाहें दो चीज़ों पर टिकी हैं—

क्या फिल्म के मेकर्स कोई आधिकारिक सफ़ाई देंगे?

क्या यह विवाद सिर्फ़ बयानबाज़ी तक सीमित रहेगा, या किसी बड़े कूटनीतिक या कानूनी मोड़ की तरफ़ जाएगा?

एक बात साफ़ है—जब सिनेमा राजनीति से हाथ मिलाता है, तो तालियां कम और सवाल ज़्यादा पैदा होते हैं। और शायद यही उसकी सबसे बड़ी ताक़त भी है।

क्योंकि सच यही है—कहानियां सिर्फ़ देखी नहीं जातीं, वे महसूस की जाती हैं। और जब किसी को लगे कि उसकी कहानी गलत सुनाई जा रही है, तो आवाज़ उठना लाज़मी है।


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