26/11 मुम्बई आतंकी हमले के दौरान केन्द्रीय गृहमंत्री रहे शिवराज पाटिल का तूफ़ानी कार्यकाल: कैसे सत्ता के गलियारों में वो किनारे लगा दिये गये
- byAman Prajapat
- 12 December, 2025
1. शुरुआती पृष्ठभूमि — एक नेता जिसे सलीका पसंद था
शिवराज पाटिल उन नेताओं में से थे जो राजनीति को तहज़ीब और शिष्टाचार का मैदान समझते थे।
पुरानी पीढ़ी का ठाठ, सफ़ेद पोशाक, संतुलित शब्द —
मतलब पूरी वाइब ही “सादगी में गरिमा” वाली।
उनके बारे में जानने वाले अक्सर कहते थे —
“ये आदमी सत्ता के शोर में भी शांति खोज लेता है।”
पर राजनीति का मैदान इंस्टा रील जैसा नहीं होता,
यहाँ ट्रेंड हर पल बदलता है, और टाइमिंग सबसे बड़ा खिलाड़ी होती है।
2. गृहमंत्रालय की ज़िम्मेदारी — एक भारी चादर
जब किसी देश की आन्तरिक सुरक्षा का पूरा बोझ एक व्यक्ति के कंधों पर टंगा हो,
तो उसका हर कदम इतिहास बन सकता है।
शिवराज पाटिल ने यह चादर ओढ़ी तो सही,
पर ये चादर उतनी हल्की नहीं थी जितनी दूर से दिखती है।
इस दौरान देश के कई हिस्सों में धमाके हुए,
और जनता के मन में सवाल भी उठते गये —
“आख़िर खामी कहाँ है?”
3. फिर आई वो काली रात — २६/११ का हमला
मुम्बई पर हुआ वह दर्दनाक हमला
देश की आत्मा को चीर देने वाला था।
घड़ी की सुइयाँ जैसे ठहर गयीं थीं।
टीवी स्क्रीन पर आग, धुआँ, चीखें, भागते कदम…
देश भर में बेचैनी का पानी उफनने लगा।
और इसी रात सत्ता के गलियारों में
शिवराज पाटिल की छवि भी हिलने लगी।
4. वो तस्वीर जिसने सब बदल दिया
हर संकट की घड़ी में जनता सिर्फ़ एक चीज़ ढूँढती है —
नेतृत्व।
पर इस दौरान शिवराज पाटिल की कुछ सार्वजनिक तस्वीरें सामने आईं —
जहाँ वो अलग-अलग परिधानों में नज़र आये।
लोगों ने इसे ग़लत समझा,
विपक्ष ने इसे हथियार बनाया,
और मीडिया ने इसे तूफ़ान में बदल दिया।
यह घटना उनके लिए “छवि का पतन” जैसी बन गयी।
कभी-कभी नेतृत्व सिर्फ़ काम से नहीं,
नज़र आने के तरीक़े से भी आँका जाता है —
और यहीं उनके बाज़ी पलट गयी।
5. राजनीतिक दबाव — जैसे चारों तरफ़ से खिंचती रस्सियाँ
सरकार पर सवालों की बौछार होने लगी।
गृहमंत्री पर उँगलियाँ उठीं,
और सिस्टम में जिम्मेदारी ढूँढने की होड़ मच गयी।
शिवराज पाटिल पर दबाव बढ़ता गया,
और अंततः एक दिन उन्होंने पद छोड़ दिया।
उनका इस्तीफ़ा सिर्फ़ एक औपचारिक काग़ज नहीं था —
वह एक दौर का अंत था।
6. सत्ता से किनारे — जैसे नाव किनारे पर बाँध दी गई हो
इस्तीफ़े के बाद
शिवराज पाटिल धीरे-धीरे सत्ता से दूर होते गये।
एक समय संसद और मंत्रालय के चहल-पहल वाले दिन
धीरे-धीरे शांत गलियों में बदलने लगे।
उन्होंने अपने तरीके से काम जारी रखा,
पर राष्ट्रीय राजनीति की पहली पंक्ति में
उनकी जगह किसी और ने ले ली।
राजनीति में खाली कुर्सियाँ ज़्यादा देर खाली नहीं रहतीं।

7. क्या वाकई उनकी ग़लती थी? — एक ईमानदार सवाल
देख, सच बोलूँ —
सिस्टम की विफलता कभी अकेले किसी एक व्यक्ति की वजह नहीं होती।
२६/११ जैसी घटनाएँ
कई स्तरों पर सुरक्षा खामियों का नतीजा होती हैं।
पर राजनीति में दोष ढूँढना
हमेशा आसान होता है,
और सबसे आगे वही व्यक्ति आता है
जिसका नाम बोर्ड पर सबसे ऊपर लिखा होता है —
इस मामले में गृहमंत्री।
8. जनता की यादों में उनकी जगह — सम्मान भी, आलोचना भी
समय बीत गया,
पर शिवराज पाटिल का नाम जब भी आता है
तो वो दो छवियों के बीच अटका रहता है —
एक तरफ़ उनका सधा हुआ, सम्मानित व्यक्तित्व,
और दूसरी तरफ़ वो कठिन रात
जिसने देश की आत्मा पर निशान छोड़ा
और उनकी छवि पर भी।
9. सत्ता का खेल — जहाँ तालियाँ और ताने दोनों तेज़ी से बदलते हैं
राजनीति में सब कुछ पल भर में बदल जाता है।
जिसे कल सर-आँखों पर बैठाया जाता है,
वही आज किनारे कर दिया जाता है।
शिवराज पाटिल इसका जीवंत उदाहरण बन गये।
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